चंबल के सिनेमाई ग्लैमर से परे क्या हैं असल मुद्दे

'सोन चिड़िया' से लेकर 'पान सिंह तोमर' और चंबल की क़सम' जैसी फ़िल्मों के ज़रिए आपने 'चंबल घाटी' के डकैतों की कहानियां तो ज़रूर देखीं-सुनी होंगी. लेकिन डकैतों के इस सिनेमाई ग्लैमर से परे, चंबल घाटी के रोज़मर्रा में जीवन के झांककर यहां के ज़मीनी चुनावी मुद्दों की पड़ताल करने बीबीसी की टीम चम्बल के कुख्यात बीहड़ों में पहुंची.

राजधानी दिल्ली से क़रीब 350 किलोमीटर दूर, हम मध्यप्रदेश के मुरैना ज़िले के बीहड़ों से गुज़र रहे हैं. लगभग दोमंज़िला इमारतों जितनी उंचाई वाले रेतीले पठारों के बीचे से होते हुए टेढ़े मेढ़े रास्ते. बीच बीच में कंटीली जंगली वनस्पतियों के बड़े-बड़े झाड़ जो गुजराती गाड़ियों के बंद शीशों पर 'स्क्रैच' के निशान छोड़ जाते हैं.

मुख्य शहर और बीहड़ों से एक घंटे की दूरी पर हमें चम्बल का साफ़ नीला पानी पहली बार नज़र आया. लेकिन मुरैना जिले से गुज़रने वाली यह नदी यहां तक एक लंबा रास्ता तय करके पहुंची है.

मूलतः यमुना की मुख्य सहायक नदियों के तौर पर पहचानी जाने वाली चम्बल की शुरुआत विंध्याचल की पहाड़ियों में मऊ शहर के पास से होती है. फिर वहां से मध्यप्रदेश, राजस्थान, और उत्तर प्रदेश की सीमाओं से होती हुई यह वापस मध्य प्रदेश आती है और अंत में उत्तर प्रदेश के जालौन में यमुना में मिल जाती है. लेकिन क़रीब 960 किलोमीटर लम्बी अपनी इस यात्रा में चंबल अपने आस-पास रेतीले कंटीले बीहड़ों का लंबा साम्राज्य खड़ा करते हुए जाती है. हर साल क़रीब 800 हेक्टेयर की दर से बढ़ रहे बीहड़ आज चम्बल घाटी की सबसे बड़ी समस्या है.

दरसल 2019 का लोकसभा चुनाव आज़ादी के बाद का वह पहला चुनाव है जब चंबल घाटी से डकैत पूरी तरह ख़त्म हो चुके हैं. चुनाव प्रचार के दौरान इस बात का श्रेय लेकर वोट बटोरने की होड़ भी भाजपा और कांग्रेस दोनो ही पार्टियां कर रही हैं. दूर से 'डाकू-मुक्त चम्बल' की यह तस्वीर अच्छी भी लगती है. लेकिन लगातार फैलते बीहड़ों और घटते ज़मीनी रकबे की वजह से डकैत बनने और बनाने की परिस्थितियां यहां आज भी मौजूद हैं.

श्योपुर, मुरैना से लेकर भिंड ज़िले तक मध्यप्रदेश में चम्बल नदी के किनारे बसे अधिकांश गांव बढ़ते बीहड़ों की चपेट में आकर ख़त्म हो रहे हैं. उपजाऊ और रिहाइशी ज़मीनी रकबे लगातार रेतीले पठारों और पहाड़ी टीलों में बदल रहे हैं और स्थानीय निवासी को मजबूरन अपने घर छोड़कर पलयान करना पड़ रहा है.

ऐसा ही एक बेचिराग गांव है मुरैना जिले का खंडौली गांव जो अपने मूल स्थान से विस्थापित हो चुका है.

गांव में बने मंदिर के पास बैठे एक बुज़ुर्ग रति राम सिंह सिकरवार बताते हैं, "आप आज जहां आई हैं यह तो नया खंडौली गांव है. हमारा मूल गांव तो आज बीहड़ में बदल चुका है. हमारे पुरखे, बाप-दादा सब वहीं रहते थे. फिर धीरे धीरे वो गांव रेत और बंजर बीहड़ में बदलने लगा तो हम सब गांव छोड़कर यहां एक-दो किलोमीटर आगे आकर बस गए. अब तो विस्थापित खंडौली गांव में 12 नए पुरा बस चुके हैं. लेकिन फिर से पलायन का ख़तरा हमारे सरों पर मँडरा रहा है. क्योंकि बढ़ते बढ़ते मिट्टी का कटाव अब इस नए गांव के किनारे तक आ चुका है"

खंडौली के निवासी बताते हैं कि बढ़ते बीहड़ों की वजह से लोग निश्चिन्त होकर अपनी ही ज़मीन पर पक्के मकान नहीं बनवा पाते. बीहड़ के मुश्किल रेतीले भूगोल की वजह से यहां सड़क और बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएं भी नहीं पहुंच पाती. यहां तक कि ज़मीन खोदकर लगाए गए हैंड-पम्प भी दस साल के भीतर बंजर होती ज़मीन की भेंट चढ़ जाते हैं.

रति राम का कहना है कि इस मुद्दे पर नेताओं और प्रशासन पहले से उदासीन है. वो कहते हैं, "चुनाव के वक़्त नेता आते हैं, जनता उनसे निवेदन करती है, हमारे कहने के बाद उनकी हां-हां हो जाती हैं. लेकिन चुनाव के बाद मामले पर कार्यवाही कुछ नहीं होती है."

अपनी परेशानी को पुख़्ता तौर पर समझाने के लिए रति राम के बेटे प्रतीक सिंह सिकरवार हमें खंडौली के इस नए 'पुरा' के मुहाने तक ले जाते हैं.

गांव के सामने फैले बीहड़ की ओर इशारा करते हुए वह कहते हैं, "यहां सामने कभी खेती थी हमारी लेकिन आज वो जंगल बन चुकी है. कुल पचास बीघा ज़मीन थी हमारी और आज वो पूरी की पूरी ख़त्म हो गई है. हमारे देखते देखते घर-खेत सब बंजर बीहड़ में तब्दील हो गया. आज जहां आपको जंगल दिखाई दे रहा है, कई साल पहले वहां हमारे दादाजी खेती किया करते थे. लेकिन बरसात के कटाव की वजह से आपके सामने फैला एक किलोमीटर से ज़्यादा का इलाक़ा बीहड़ हो गया है. फिर हम लोग पलायन करके बाहर आए और यहां इस नए खंडौली गांव में आकर बसे. लेकिन देखिए, अब तो यहां भी गांव के नज़दीक में कटाव आ चुका है. सिर्फ़ यही डर सताता है कि कल को कटाव की वजह से हमारे बच्चों को भी ये गांव-घर न छोड़ना पड़ जाए".

फैलते बीहड़ों की वजह से अपने खेत और घर खो देने वाले प्रतीक अकेले नहीं है. वह पूरे खंडौली गांव के विस्थापत होकर 12 नए टोलों में बसने की कहानी का एक अंश मात्र हैं.

इस कहानी के निशान खोजते हुए हम नए खंडौली गांव के पास चम्बल के बीहड़ों में पहुंचे. सघन बीहड़ों में क़रीब दो किलोमीटर अंदर जाने पर हमें रेतीले पहाड़ों के बीच क़रीब सौ साल पुराना कुआं और एक पुराना मंदिर दिखाई पड़ा.

मंदिर के पुजारी ने बताया कि पुराने मूल खंडौली गांव की आख़िरी निशानी के तौर पर अब सिर्फ़ एक कुआं बचा है. "इस सौ साल पुराने कुएं पर पहले रोज़ सैकड़ों लोग पानी भरने आया करते थे. लेकिन आज ये जगह उजाड़ है क्योंकि इस पूरे गांव को बढ़ते बीहड़ ने निगल लिया".

आंकड़ों की बात
सरकारी आँकड़े बताते हैं कि बीते 60 साल में चंबल घाटी की क़रीब 8000 हेक्टेयर ज़मीन रेतीले बीहड़ में तब्दील हो चुकी है. 1953 से लेकर 1992 के बीच यहां 'स्टेट सॉइल कंज़र्वेशन' और 'रिवाइन इरोज़न कंट्रोल' जैसी कई बड़ी सरकारी योजनाएं भी फैलते बीहड़ों को रोकने के लिए चलाई गईं.

लेकिन इन योजनाओं से जुड़ी फ़ाइलें कृषि, राजस्व, क़ानून और सामाजिक न्याय जैसे राज्य कई विभागों के बीच घूमती रहीं. एक ज़िम्मेदार विभाग न होने की वजह से इस मामले में जावबदेही तय नहीं हो पाई और ज़मीन का कटाव जस का तस रहा.

सवाल है कि चंबल के किनारे ज़मीन को रेत में बदलने वाले यह बीहड़ आख़िर बनते क्यों हैं. बहुत ढूढ़ने पर हमें चंबल में बीहड़ के फैलाव पर शोध करने वाले विशेषज्ञ डॉक्टर शोभाराम बघेल के बारे में पता चला. वह इलाक़े में बीहड़ पर शोध करने वाले चुनिंदा स्थानीय अकादमिक विशेषज्ञों में से हैं.

डॉक्टर बघेल चम्बल किनारे लगातार बढ़ रहे ज़मीन के कटाव के लिए धरती के भीतर मौजूद 'टेक्टॉनिक प्लेट्स में ज़ारी आंतरिक दबाव' के साथ साथ यहां की जलवायु को भी ज़िम्मेदार मानते हैं. "बहुत तेज़ सूखे के बाद यहां पानी पड़ता है. ऊपर से यहां की मिट्टी भी भुरभुरी है. रेत जैसी मिट्टी में ये बूंदे सीधी गड़ जाती हैं. गड़ने के बाद जब वो बहती हैं तो उनका स्वरूप नाली जैसा हो जाता है. फिर नाली से और बड़ी नाली और वहां से खड्ड में तब्दील हो जाती हैं. यही खड्ड धीरे धीरे रेतीले टीलों में बदल जाते हैं".

वहीं दूसरी ओर बीहड़ों पर काम करने वाले स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता बिशेंद्र पाल सिंह जादौन का मानना है कि डकैतों के ख़ात्मे के बाद से बीहड़ का फैलाव तेज़ हो गया है.

वह कहते हैं, "जब तक बीहड़ों में डकैत थे, तब तक उनके डर की वजह से बीहड़ संरक्षित थे. क्योंकि लोग बीहड़ में नहीं जाते थे. डकैतों के ख़ात्मे के बाद जितने वृक्ष थे, सब धीरे धीरे काट दिए गए. इस तरह बीहड़ हरियाली से मुक्त हो गए और फिर मिट्टी का क्षरण तेज़ हो गया. आब हाल ये है कि हर साल यहां 800 से 900 हेक्टेयर भूमि 'रेवाइनस' या बंजर बीहड़ में तब्दील हो जाती है. इसी वजह से मध्य प्रदेश की चम्बल बेल्ट में अब तक लगभग 2500 गांव बेचिराग हो चुके हैं. और इन बेचिराग गांवों की संख्या हर साल बढ़ती ही जा रही है".

नए डाकुओं के पनपने के हालात

क्षेत्रीय जानकार बताते हैं कि राजनीतिक पार्टियाँ भले ही 2019 के लोकसभा चुनाव में 'डाकू मुक्त चंबल' की छवि को भुनाकर वोट मांग रही हों लेकिन नए डाकुओं के पनपने की परिस्थितियां अब भी यहां मौजूद हैं.

स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार देव श्रीमाली बताते हैं, "सरकारी फ़ाइलों में डाकू तो ख़त्म हो गए लेकिन जिन कारणों से चम्बल के लोग पहले डाकू बना करते थे वे सारी परिस्थितियाँ तो यहां आज भी मौजूद हैं. लोग लगातार पलायन कर रहे हैं क्योंकि गांव के गांव बेचिराग हो रहे हैं. लोगों को दूसरी जगह बसना पड़ रहा है. इस वजह से मुरैना और ग्वालियर जैसे शहरों पर बोझ भी बहुत बढ़ रहा है."

वह मिसाल देते हुए बताते हैं कि सैकड़ों लोग ऐसे हैं जिनके पास आज से 60 साल पहले तक सौ-सौ बीघा ज़मीन थी. अब उनके पास दो बीघा भी ज़मीन नहीं है. उन्होंने कहीं कोई ज़मीन बेची भी नहीं है. उनकी नदी-किनारे की उपजाऊ ज़मीन बंजर बीहड़ में तब्दील होकर ख़त्म हो गयी है.

बेरोज़गारी इन हालात को और बुरा बना देती है. देव श्रीमाली के मुताबिक, "अब उन लोगों के पास रोज़गार का कोई साधन भी नहीं है. ज़मीन को लेकर झगड़े -झंझट और मारपीट यहां इसलिए भी होती हैं क्योंकि ज़मीन का रक़बा लगातार कम होता जा रहा है. ऐसे ही झगड़ों में शामिल हुए लोग एक हत्या हो जाने के बाद ख़ुद को बचाने के लिए डाकुओं के गैंग बना लेते हैं."

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